Friday 17 April 2020

भारत का इतिहास :- भक्ति-आन्दोलन

भक्ति-आन्दोलन

> छठी शताब्दी ई० में भक्ति आन्दोलन का शुरुआत तमिल क्षेत्र से हुई जो कर्नाटक और महाराष्ट्र में फैल गई।
> भाक्ति आन्दोलन का विकास बारह अलवार वैष्णव संतों और तिरसठ नयनार शैव संतो ने किया।
> शेव संत अप्पार ने पल्लव राजा महेन्द्रवर्मन को शैवधर्म स्वीकार करवाया। भक्ति कवि-संतों को संत कहा जाता था। और उनके दो समूह थे। प्रथम समूह वैष्णव संत थे जो महाराष्ट्र में लोकप्रिय हुए। वे भगवान विठोबा के भक्त थे। विठोबा पंथ के संत और उनके अनुयायी वरकरी या तीर्थयात्री-पंथ कहलाते थे, क्योंकि हर वर्ष पंढरपुर की तीर्थयात्रा पर जाते थे। दुसरा समूह पंजाब एवं राजस्थान के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सक्रिय था और इसकी निर्गुण भक्ति (हर विशेषता से परे भमवान की भक्ति) में आस्था थी।
> भक्ति आन्दोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में 12वीं शताब्दी के प्रारंभ में रामानन्द के द्वारा लाया गया।
> बंगाल में कृष्ण भक्ति की प्रारंभिक प्रतिपादकों में विद्यापति ठाकुर और चंडीदास थे।
> रामानंद की शिक्षा से दो संप्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ, सगुण जो पुनर्जन्म में विश्वास रखता है और निर्गुण जो भगवान के निराकर रूप को पूजता है।
> सगुण संप्रदाय के सबसे प्रसिद्ध व्याख्याताओं में ये, तुलसीदास और नाभादास जैसे राम भक्त और निम्बार्क, वर्लभाचार्य, चैतन्य, सूरदास और मीराबाई जैसे कृष्ण भक्त।
> निर्गुण सम्प्रदाय के सयसे प्रसिद्ध प्रतिनिधि थे कबीर, जिन्हें भावी उत्तर भारतीय पंथों का आध्यात्मिक गुरु माना गया है ।
> शंकराचार्य के अद्वैतदर्शन के विरोध में दक्षिण में वैष्णव संतों संतों द्वारा चार मतों की स्थापना की गयी थी


दक्षिण में वैष्णव वैष्णव संतों द्वारा स्थापित चार मत

श्री संप्रदाय रामनुजचार्य विशिष्टाद्वैतवाद
ब्रम्हा-सम्प्रदाय माध्वाचार्य द्वित्ववाद
रूद्र-सम्प्रदाय विष्णुस्वामी शुद्धद्वैतवाद
सनकादि सम्प्रदाय निम्बबार्काचार्य द्वैताद्वैतवाद

रामानुजाचार्य : (11वीं शताब्दी) इन्होंने राम को अपना आराध्य माना। इनका जन्म 1017 ई० में मदास के निकट पेरुम्बर नामक स्थान पर हुआ था। 1137 ई० में इनकी मृत्यु हो गयी। रामानुज ने वेदान्त में प्रशिक्षण अपने गुरु, कांचीपुरम के यादव प्रकाश से प्राप्त किया था ।

रामानंद : रामानंद का जन्म 1299 ई० में प्रयाग में हुआ था इनकी शिक्षा प्रयाग तथा वाराणसी में हुई। इन्होंने अपना सम्प्रदाय सभी जातियों के लिए खोल दिया। रामानुज की भाँति इन्होंने भी भक्ति को मौक्ष का एकमात्र साधन स्वीकार किया। इन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम एवं सीता की आराधना को समाज के समक्ष रखा । इनके प्रमुख शिष्य थे-रैदास (हरिजन), कबीर (जुलाहा), धन्ना (जाट), सेना (नाई), पीपा (राजपूत) ।

कबीर : कबीर का जन्म 1425 ई० में एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था| लोक लज्जा के भय से उसने नवजात शिशु को वाराणसी में लहरतारा के पास एक तालाब के समीप छोड़ दिया। जुलाहा नीरु तथा उसकी पली नीमा इस नवजात शिशु को अपने घर ले आये। इस बालक का नाम कबीर रखा गया। इन्होंने राम, रहीम, हजरत, अल्लाह आदि को एक ही ईश्वर के अनेक रूप माने । इन्होंने जाति प्रथा, धार्मिक कर्मकांड, बाह्य आडंम्बर, मूर्तिपूजा, जप-तप, अवतारवाद आदि का घोर विरोध करते हुए एकेश्वरवाद में आस्था व्यक्त की एवं निराकार ब्रह्मकी उपासना को महत्त्व दिया। निर्गुण भक्ति धारा से जुड़े कबीर ऐसे प्रथम भक्त थे, जिन्होंने संत होने के बाद भी पूर्णतः गृहस्थ जीवन का निर्वाह किया। इनके अनुयायी 'कवीरपंथी' कहलाए। कबीर के उपदेश सबद सिक्खों के आदिग्रंथ में संगृहीत हैं।

गुरू नानक : गुरु नानक का जन्म 1469 ई० अविभाजित पंजाब के तलवण्डी नामक स्थान पर हुआ था, जो अब ननकाना साहिब के नाम से विख्यात है। उनकी माता का नाम तृप्ता देवी तथा पिता का नाम कालूराम था। बटाला के मूलराज खत्री की बेटी, सुलक्षणी से उनका विवाह हुआ। उन्होंने देश का पाँच बार चक्कर लगाया, जिसे उदासीस कहा जाता है । उन्होंने कीर्तनों के माध्यम से उपदेश दिए । अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने रावी नदी के किनारे करतारपुर में अपना डेहरा (मठ) स्थापित किया । अपने जीवन काल में ही उन्होंने आध्यात्मिक आधार पर अपने पुत्रों  की जगह, अपने शिष्य भाई लहना (अगंद) की अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।इनकी
मृत्य 1539 ई० में करतारपुर में हुई। नानक ने सिक्ख धर्म की स्थापना की। नानक सूफी संत बाबा फरीद से प्रभावित थे।

चैतन्य स्वामी : चैतन्य का जन्म 1486 ई० में नदिया (वंगाल) के मायापुर गाँव में हुआ था । इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र एवं माता का नाम शची देवी था। पाठशाला में चैतन्य को निमाई पंडित कहा जाता था। इन्होंने गोसाई संघ की स्थापना की और साथ ही संकीर्तन प्रथा को जन्म दिया। इनके दार्शनिक सिद्धान्त को अचिंत्य भेदाभेदवाद के नाम से जाना जाता है।संन्यासी बनने के बाद बंगाल छोड़कर पुरी (उड़ीसा) चले गये, जहाँ उन्होंने  दो दशक तक भगवान जगन्नाथ की उपासना की।

श्री मदूवल्लभाचार्य: श्री मद्वल्लभाचार्य का जन्म 1479 ई० में चम्पारण्य (वाराणसी) में हुआ था। इनके पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट तथा माता का नाम यल्लमगरु था। इनका विवाहमहालक्ष्मी के साथ हुआ। इनके दो पुत्र थे-गोपीनाथ (जन्म 1511 ई०) तथा विट्ठलनाथ (जन्म 1516 ई०) थे। इन्होंने गंगा यमुना संगम के समीप अरैल नामक स्थान पर अपना निवासस्थान बनाया। बल्लभाचार्य ने भक्ति -साधना पर विशेष जोर दिया। इन्होंने भक्ति को मोक्ष का साधन बताया। इनके भक्तिमार्ग को पुष्टिमार्ग कहते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास : इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में राजापुर गाँव में 1554 ई० में हुआ था। इन्होंने रामचरितमानस की रचना की।

धन्ना : धन्ना का जन्म 1415 ई० में एक जाट परिवार में हुआ था। राजपुताना से बनारस आकर ये रामचंद के शिष्य बन गए  कहा जाता है कि इन्होने भगवान कि मूर्ति को हठात भोजन कराया था

रैदास : ये जाति से चमार थे। ये रामानंद के बारह शिष्यों में एक थे। इनके पिता का नाम रघु तथा माता का नाम घुरबिनिया था। ये जूता बनाकर जीविकोपार्जन करते थे। मीराबाई ने  इन्हें अपना गुरु माना है। इन्होंने रायदासी सम्प्रदाय की स्थापना की।

दादू-दयाल : ये कवीर के अनुयायी थे। इनका जन्म 1554 ई० में अहमदाबाद में हुआ था। इनका संबंध धुनिया जाति से था। साँभर में आकर इन्होंने ब्रह्म सम्प्रदाय की स्थापना की। अकबर ने धार्मिक चर्चा के लिए इन्हें एक बार फतेहपुर सीकरी बुलाया था। इन्होंने 'निपख' नामक आन्दोलन की शुरुआत की।

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